सिंहासन और सवाल
वोट की गली में फिर से,
वादों का मेला सजा है,
हर चेहरे पर मुस्कान नई,
पर आँखों में वही पुराना मज़ा है।
मंच से गिरते हैं सपने,
तालियों में दब जाती चीख,
सच काग़ज़ों में कैद हुआ,
झूठ बना भाषण की सीख।
कुर्सी के खातिर बदली सोच,
रंग बदले, बदला ज़मीर,
जनता फिर भी पूछती रही—
“कब आएगी खुशहाली की लकीर?”
रोटी, पानी, शिक्षा, इलाज,
हर मुद्दा बस नारा बना,
सत्ता की शतरंज में जनता
हमेशा ही प्यादा ठहरा।
पर एक दिन बदलेगा मंज़र,
जब सवाल ज़ोर से बोलेगा,
तब सिंहासन काँप उठेगा,
जब जन-मन खुद को तोलेगा।
राजनीति तब पवित्र होगी,
जब सेवा उसका धर्म बने,
और नेता नहीं, जनता ही
लोकतंत्र का सबसे बड़ा कर्म बने।

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