गुड्डे गुड़ियों से खेलते खेलते
जज्बातों से मेरे खेल गई
हम बैठे थे राहों में तुम्हारी
तुम रास्ता बदलकर चली गई II
तुम कहती थी कि
तुम बिन मेरी कोई साध नहीं है
और जीवन में कोई आश नहीं है
फिर क्यों राजों को मुस्कान में दबाकर चली गई II
तुम यह भी कहती थी कि
जीवन कि सभी मुसीबतों को
हाथ पकड़ हम पार करेंगे
फिर क्यों बीच मझधार हाथ छुड़ाकर चली गई II  

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